अवैधानिक स्कूलों को मान्यता कब तक ?
झाबुआ ( पवन नाहर ) निजी शिक्षण संस्थाएं (प्राइवेट स्कूल) अपनी मनमानी से बाज नहीं आ रहे है। पूरे प्रदेश में निजी स्कूलों की मनमानी आए दिन बढ़ती ही जा रही है। नर्सरी के बच्चों की फीस 25 से लेकर 35 हजार वार्षिक हो गई है जिसे ये दो से तीन किश्तों में वसुलते है। पेरेंट्स कभी फीस देने में लेट हो जाये तो स्कूल मैनेजमेंट बेरहम बन जाता है और फीस के लिए बच्चों को कक्षा से बाहर खड़ा करके इसे डिप्रेशन में ला देते है। स्कूलों में ड्रेस और पुस्तकों के साथ कापियां व टाई, बेल्ट जूते मौजे तक बिकने लगे है। ठंड के दिनों में ब्लेजर व स्वेटर भी आप स्कूल या उनके द्वारा ही रखवाए नए दुकानों से लेना अनिवार्य हो गया है।
हाल ही में इंन्दौर व रतलाम में बकायदा पेरेंट्स व मीडिया से पता चलते ही जिला कलेक्टर ने दखल दे कर कार्यवाही की। लेकिन झाबुआ ज़िलें में शिक्षा का गिरता स्तर सुधारने के लिए कोई पहल नही देखी गई जबकि प्रदेश स्तर पर आदिवासी अंचल में शिक्षा के स्तर के सुधार के लिए अनेक योजनाओं के साथ बड़ा फंड आता है लेकिन वह फंड भी कागजी खाना पूर्ति में ही समाप्त हो जाता है।
अवैधानिक चल रहे है अधिकांश स्कूल
ज़िलें में अनेक स्कूल शासन के निर्देशों पर खरे नही उतरने के बावजूद कमीशन देकर चल रहे है। बताया जा रहा है कि शासन से मान्यता प्राप्त करने के लिए यह किसी भी तरह से उसका पालन नही करते जैसे इन विद्यालयों में न तो प्रशिक्षित (बीएड,डीएड) स्टॉफ है और नही उचित खेल का मैदान इसी के साथ अन्य कई तरह की कमियों के बाबजूद इन स्कूलों को मान्यता कैसे मिल जाती है और तो और इन स्कूलों का साल दर साल नवीनीकरण भी आसानी से हो जाता है, यही नही ऐसे ही निजी स्कूलों में वार्षिक उत्सवों व मेलों में प्रशासनिक अधिकारी गेस्ट बनकर आते है लेकिन उन्हें सरकारी स्कूलों की सुध लेने व वहाँ कभी गेस्ट बनकर जाते नही देखा गया उन आश्चर्य की बात है। जब शासन प्रशासन ही सरकारी स्कूलों की उपेक्षा कर निजी स्कूलों पर इसी तरह मेहरबान होता रहेगा तो फिर आम व्यक्ति अपने बच्चों के सुखद भविष्य के लिये उसे पढ़ाने के लिए कर्ज में डूबता रहेगा जिसका एहसास पता नही कब होगा।
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