भगवान भोलेनाथ के ग्यारहवें ज्योतिर्लिंग हैं बाबा केदारनाथ। वैसे तो अधिकांश जन भगवान केदारनाथ के एक ही मंदिर के बारे में जानते हैं, पर वास्तव में भगवान केदारनाथ के पांच मन्दिर हैं। पंच केदार अर्थात; केदारनाथ, तुंगनाथ, रुद्रनाथ, मध्यमहेश्वर और कल्पेश्वर महादेव! कथा के अनुसार महाभारत युद्ध के बाद भगवान शिव को ढूंढने निकले पांडवों की परीक्षा के लिए भोलेनाथ ने बैल (कहीं कहीं भैंसा भी बताते हैं) का रूप धारण कर लिया। फिर भी उन्हें पहचान कर जब भीम ने उन्हें पकड़ना चाहा, तो वे अंतर्ध्यान हो गए। बाद में पांडवों को को इन पांचों स्थानों पर भगवान शिव के होने के संकेत मिले थे।
कूबड़ केदारनाथ में प्रकट हुआ, नाभी मध्यमहेश्वर में, भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में और केश कल्पेश्वर में। तो पांडवों ने इन पांचों स्थानों पर मन्दिर बनवाये। इन पांचों स्थानों पर बैल के शरीर का जो हिस्सा दिखा था, वहाँ विराजमान भगवान के स्वयम्भू लिंग का स्वरूप वैसा ही है। वर्तमान समय में केदारनाथ, तुंगनाथ और मध्यमहेश्वर के तीन मन्दिर बिल्कुल ही एक जैसे बनावट के हैं, और तीनों ही लगभग हजार वर्ष प्राचीन हैं। यह माना जाता है कि पांडवों के बनवाये मंदिरों का पुनरूद्धार भगवान आदिशंकराचार्य ने कराया था। यहाँ यह जानना भी आवश्यक होगा कि पंच केदार की शृंखला का ही एक तीर्थ नेपाल का पशुपतिनाथ मंदिर है, जहाँ बैल का मस्तक उभरा था।
पंचकेदार के पाँच में से चार मन्दिर साल के छह महीने बन्द रहते हैं। अक्टूबर से अप्रैल तक अत्यधिक ठंड के कारण इन चारों स्थानों पर कोई नहीं रहता। केवल एक कल्पेश्वर केदार का पट वर्ष भर श्रद्धालुओं के लिए खुला रहता है।
सनातन परंपरा में चार धाम का अर्थ होता है बद्रीनाथ, रामेश्वरम, द्वारिका और जगन्नाथपुरी। पर इनके अतिरिक्त एक छोटा चार धाम यात्रा की भी परम्परा रही है, जिसमें केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री की यात्रा होती है। इस चार धाम की यात्रा को लेकर देश के अनेक हिस्सों में ऐसी भी परम्परा रही है कि लोग गृहस्थ धर्म के कर्तव्यों से मुक्त होने के बाद आयु के उत्तरार्ध में यात्रा पर निकलते थे और फिर घर नहीं लौटते थे। यात्रा के बाद उधर पहाड़ों में ही देह त्याग देते थे। पूर्वांचल में इसे “हैवाल में गल जाना” कहते हैं। तब तीर्थ पुण्य कमाने के लिए किये जाते थे, रील बनाकर लाइक कमाने के लिए नहीं।
बताया जाता है कि केदारनाथ मंदिर तेरहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक लगभग चार सौ वर्षों तक बर्फ में दबा रहा था। पर चार शताब्दी बाद जब हिम छँटा तो मन्दिर यूँ ही खड़ा था। इन चार सौ वर्षों तक अदृश्य रहने के पीछे भोलेनाथ की क्या माया थी, यह तो वे ही जानें। अक्टूबर के महीने में जब मन्दिर के कपाट बंद किये जाते हैं तो वहाँ एक दीपक जलाया जाता है। और कहते हैं कि छह महीने बाद जब मन्दिर के कपाट खुलते हैं तो वह दीपक जलता हुआ मिलता है। महादेव की माया वे ही जानें…
सो साहब! यदि मन सांसारिक विकारों से मुक्त हो गया हो, तो कर आइये दर्शन पंच केदार के। पर यदि तीर्थ जाते समय भी कुरकुरे-चिप्स के पैकेट और बिसलरी के बोतल का मोह नहीं छूटता हो, तो जहाँ हैं वहीं से नमन कीजिये भगवान केदारनाथ को। देवभूमि का सत्यानाश करने जाते लोगों पर वे क्या ही प्रसन्न होंगे।
सावन के सोमवार को आप सब पर भगवान केदारनाथ की कृपा बरसे। हर हर महादेव।